क्या है MSP जिसके लिए विरोध कर रहे किसान और यह क्यों जरुरी है?
पिछले कुछ दिनों से कई राज्यों के किसान सड़कों पर हैं। उनकी चिंता इस बात से है कि सरकार नया कानून बनाने जा रही है, जिससे फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी।
वहीं सरकार का कहना है कि नए कानूनों से MSP पर कोई असर नहीं पड़ेगा और यह व्यवस्था पहले की तरह ही जारी रहेगी।
इस बीच यह जानना जरूरी हो जाता है कि MSP क्या होता है और इसकी जरूरत क्यों पड़ती है।
सरकार किसान की फसल के लिए एक न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती है, जिसे MSP कहा जाता है।
यह एक तरह से सरकार की तरफ से गारंटी होती है कि हर हाल में किसान को उसकी फसल के लिए तय दाम मिलेंगे।
अगर मंडियों में किसान को MSP या उससे ज्यादा पैसे नहीं मिलते तो सरकार किसानों से उनकी फसल MSP पर खरीद लेती है। इससे बाजार में फसलों की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव का किसानों पर असर नहीं पड़ता।
आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में किसान इस बात को लेकर काफी परेशान थे कि अगर किसी फसल का बंपर उत्पादन हो जाए तो उन्हें उसके अच्छे दाम नहीं मिल पाते थे।
इस तरह से किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती थी, जिस कारण वो आंदोलन करने लगे।
इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री रहते हुए 1 अगस्त, 1964 को एलके झा के नेतृत्व में एक समिति बनी, जिसका काम अनाजों की कीमतें तय करने का था।
समिति की सिफारिशें लागू होने के बाद 1966-67 में पहली बार गेहूं के लिए MSP का ऐलान किया गया।
इसके बाद से हर साल सरकार बुवाई से पहले फसलों के MSP घोषित कर देती है। MSP तय करने के बाद सरकार स्थानीय सरकारी एजेंसियों के जरिये अनाज खरीदकर फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) और नेफेड के पास उसका भंडारण करती है।
फिर इन्हीं स्टोर्स से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के जरिये गरीबों तक सस्ते दामों में अनाज पहुंचाया जाता है।
शुरुआत में केवल गेहूं के लिए MSP तय किया गया था। इससे किसान बाकी फसलों को छोड़कर सिर्फ गेहूं की फसल उगाने लगे, जिससे अनाजों का उत्पादन कम हो गया।
फिर सरकार की तरफ से धान, तिलहन और दलहन की फसलों पर भी MSP दिया जाने लगा।
फिलहाल धान, गेहूं, मक्का, जई, जौ, बाजरा, चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, सरसों, सोयाबीन, शीशम, सूरजमूखी, गन्ना, कपास, जूट समेत 20 से अधिक फसलों पर MSP दिया जाता है।
देश में MSP तय करने का काम कृषि लागत एवं मूल्य आयोग का है।
कृषि मंत्रालय के तहत काम करने वाली यह संस्था शुरुआत में कृषि मूल्य के नाम से जानी जाती थी। बाद में इसमें लागत भी जोड़ दी गई, जिससे इसका नाम बदलकर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग हो गया।
यह अलग-अलग फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है। वहीं गन्ने का MSP तय करने की जिम्मेदारी गन्ना आयोग के पास होती है।
MSP तय करने की प्रकिया काफी जटिल और लंबी होती है।
इसके लिए आयोग अलग-अलग इलाकों में किसी खास फसल की प्रति हेक्टेयर लागत, खेती के दौरान आने वाले खर्च, सरकारी एजेंसियों की स्टोरेज क्षमता, वैश्विक बाजार में उस अनाज की मांग और उसकी उपलब्धता आदि मानकों के आंकड़े इकट्ठा करता है।
इसके बाद सभी हितधारकों और विशेषज्ञों से सुझाव लिए जाते हैं। अंत में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति इस पर अंतिम फैसला लेती है।
सरकार भले ही 20 से ज्यादा फसलों के लिए MSP तय करती है, लेकिन आमतौर पर सरकारी स्तर पर खरीद केवल गेहूं और धान की हो पाती है।
ऐसे में सभी किसानों को MSP का फायदा नहीं मिल पाता। इसकी वजह यह है कि गेहूं और धान को सरकार PDS प्रणाली के तहत गरीबों को देती है इसलिए उसे इसकी जरूरत होती है।
बाकी फसलों की उसे इतने बड़े स्तर पर जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए उनकी खरीद नहीं होती।
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